Spotnow news: एक हैरान कर देने वाली घटना सामने आई है। चार दिन पहले दो जुड़वा बच्चे एक लड़का और एक लड़की जो हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस नामक अत्यंत दुर्लभ आनुवांशिक बीमारी से जन्मे हैं।
इन बच्चों की त्वचा पर एक प्लास्टिक जैसी परत दिखती है। जो दरारों के साथ फटी हुई है और नाखून जैसी कठोर बन गई है। यह बीमारी बेहद कम होती है और आमतौर पर 5 लाख में से केवल एक बच्चे को होती है।
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जन्म के समय इन बच्चों की स्थिति बेहद गंभीर थी। और उन्हें तत्काल इलाज के लिए बीकानेर के PBM अस्पताल रेफर किया गया। चिकित्सकों के अनुसार जुड़वा बच्चों में यह बीमारी पहले कभी नहीं देखी गई थी, और यह देश में ऐसा पहला मामला माना जा रहा है।
क्या है हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस?
यह एक ऑटोसोमल रिसेसिव जीन द्वारा संचालित एक गंभीर आनुवांशिक विकार है। इसके कारण बच्चों की त्वचा अत्यधिक कठोर हो जाती है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसका प्रभाव केवल त्वचा पर नहीं, बल्कि अंगों की विकास प्रक्रिया पर भी पड़ता है। जिससे शिशु की सामान्य शारीरिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं। हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस वाले बच्चों को जीवन के पहले एक साल में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और इनमें से अधिकांश शिशु एक सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रहते।
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सालों तक इलाज की आवश्यकता
इस बीमारी में बच्चों की त्वचा पर गहरी दरारें, पलकें बाहर की ओर मुड़ी हुई। और आंखें बंद न होने जैसे लक्षण दिखते हैं। इसके अलावा इन बच्चों को सांस लेने में भी कठिनाई होती है। और वे डिहाइड्रेशन से भी ग्रस्त हो सकते हैं।
बीकानेर के PBM अस्पताल में डॉक्टरों की एक टीम ने इन बच्चों के इलाज में जुटी हुई है। शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. जीएस तंवर के अनुसार इन बच्चों को जीवित रखने के लिए उनका इलाज विशेष देखभाल यूनिट (NICU) में किया जा रहा है। और उन्हें विटामिन-ए की थेरेपी दी जा रही है ताकि उनकी त्वचा को नमी मिल सके।
माता-पिता के बिना लक्षण होने के बावजूद बच्चे में बीमारी का जोखिम
यह बीमारी जीन वाहकों से बच्चों में जाती है। और यह जरूरी नहीं कि माता-पिता को स्वयं इस बीमारी के लक्षण हों। मेडिकल हिस्ट्री के अनुसार अगर एक माता-पिता में इस जीन का वाहक होने का संज्ञान होता है। तो अगली पीढ़ी में यह रोग हो सकता है। बीकानेर में जन्मे इन बच्चों के माता-पिता को खुद यह बीमारी नहीं है, लेकिन वे इसके वाहक हो सकते हैं।
डॉ. तंवर ने बताया कि इन बच्चों की स्थिति अत्यधिक नाजुक है और उन्हें जीवित रखने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। डॉक्टरों के अनुसार इस बीमारी में मृत्यु दर 100 प्रतिशत तक हो सकती है। और बचने वाले बच्चे भी कई बार गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के साथ जीते हैं।
हालांकि उच्च गुणवत्ता वाले चिकित्सा देखभाल और देखरेख के साथ बच्चे कुछ सालों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन यह जीवन बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है।
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यह मामला मेडिकल समुदाय के लिए एक बड़ा चैलेंज है। क्योंकि यह बीमारी बेहद दुर्लभ है और इससे निपटने के लिए उच्चतम स्तर की चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है। अस्पताल के डर्मेटोलॉजी विभाग और शिशु रोग विशेषज्ञों की टीम ने मिलकर बच्चों की जान बचाने के लिए कई कठिन उपचार शुरू किए हैं।